साहित्य समाज का दर्पण होता है और राजनीति भी देश के विकास, व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. देश के निर्माण में साहित्य और समाज के बीच के संबंध पर बात कर रही हैं वरिष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद और पूर्व विधायक डॉ. उषा सिन्हा. साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में इनकी उपलब्धि प्रेरणादायक है. अब तक इन्होंने कई किताबों का लेखन किया है साथ ही बिहार महिला आयोग एवं साहित्य अकादमी नई दिल्ली की पूर्व सदस्य रह चुकी हैं.
रिपोर्टर: नमस्कार ! न्यूज़ शेड में आपका बहुत- बहुत स्वागत है. साहित्य और राजनीति का क्या संबंध है? आप राजनीतिज्ञ भी है और साहित्यकार भी दोनों में आप कैसे सामंजस्य बिठाती हैं?
उषा सिन्हा- धन्यवाद! देखिए दोनो अलग विषय है. साहित्य मेरे खून में है और राजनीति देश दुनिया को समझने की कोशिश है.
जब से देश के वयस्क नागरिकों को वोट देने का अधिकार मिला है. तब से कमोबेश सभी राजनीतिज्ञ हो गए हैं. मै ये मानने लगी हूं कि सियासत में साहित्य के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन साहित्य में सियासत के लिए जगह है.अब हर जगह राजनीति होती है. हर चीज राजनीति से नियंत्रित होता है. इधर राजनीति में भी बदलाव हुए हैं इसके कारण समाज में भी उथल-पुथल हो रहा है. सबका असर साहित्य में दिखाई पड़ता है.
रिपोर्टर: क्या राजनीति में साहित्य या साहित्यकार की जगह होना चाहिए ?
उषा सिन्हा- बिलकुल होनी चाहिए. राजनीति में जब साहित्य प्रवेश करता है तो उच्च चिंतन के लिए राजनीतिज्ञ को प्रेरित करता है. साहित्य मानवीय करुणा, संवेदनशीलता, सदभाव, सांस्कृतिक ज्ञान, संयम और सौहार्द प्रदान करता है.साहित्य किसी भी राष्ट्र की सांस्कृतिक की विरासत होती है.
रिपोर्टर: क्या आज के साहित्य पर बाजारवाद और राजनीति हावी है?
उषा सिन्हा- अब प्रेमचंद जैसे लेखक कहां है जिन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था.अब दिनकर जैसे कवि भी नही है, जो निडर होकर कह सकें.
“कुपथ कुपथ जो रथ दौड़ाता पथ निर्देशक वह है
लाज लजाती जिसकी कृति से धृति उपदेशक वह है”
साहित्य जगत में चाटुकारों की एक अलग श्रेणी उग आई है. साहित्य में इतनी सामर्थ्य तो है जो कलात्मक रूप से व्यंजना के जरिए बेहतर जीवन मूल्यों को राजनीति में संचारित कर दे.
रिपोर्टर: सियासत के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने वाले साहित्यकार कुर्सी पाने में कितना सफल होते है?
उषा सिन्हा- दस प्रतिशत! कहा न कि राजनीति में योग्यता का कोई महत्व नहीं. आप साहित्यकार हैं तो बने रहिए. उपदेश दीजिए. किताबे लिखिए.कवि सम्मेलन में भाग लीजिए. जब राजनीति में कुर्सी या जगह देने की बात हो तो साहित्य के कोटे से किसी और को भर दिया जाता है. हर पार्टी की लगभग यही स्थिति है. बहुत हुआ तो कोई पुरस्कार दे दिया जायेगा वो भी उनको जो उनके हां में हां मिलाते है
वो गाना हुआ ना…
“जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे”
रिपोर्टर: तो क्या साहित्यकारों को राजनीति से दूर रहना चाहिए?
उषा सिन्हा – नही, ये मैने कब कहा. साहित्यकारों को संघर्ष का रास्ता चुनना चाहिए. चाटुकारिता से नही बल्कि अपने आत्मबल से अपनी जगह बनानी चाहिए. विनम्र किन्तु निर्भीक भाव से कहना चाहिए.
“नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहीं विकास इहिं
अलि कली ही सो बिन्ध्यो आगे कौन हवाल “